दो संन्यासियों को मिली महामंडलेश्वर की उपाधि, सिंहस्थ में बनने लगी संतों की कैबिनेट

अखाड़े में आचार्य के बाद उपमुख्यमंत्री जैसी होती है महामंडलेश्वर की भूमिका
उज्जैन. सिंहस्थ में धार्मिक गतिविधियों के साथ ही साधु-संतों के अखाड़ों की कैबिनेट भी बनने लगी है। शनिवार को दो महात्माओं को महामंडलेश्वर की उपाधि दी गई। अखाड़े में सबसे बड़ा पद आचार्य का होता है, उनके बाद महामंडलेश्वर की भूमिका उपमुख्यमंत्री जैसी होती है। इस सिंहस्थ में करीब दो दर्जन महामंडलेश्वर बनाए जा सकते हैं, जो विभिन्न अखाड़ों व पीठों की व्यवस्था देखेंगे।
पट्टाभिषेक कर उन्हें महामंडलेश्वर की उपाधि दी
श्री पंचदशनाम जूना अखाड़े में स्वामी अनंतदेवगिरि महाराज का पट्टाभिषेक कर उन्हें महामंडलेश्वर की उपाधि दी गई। उजडख़ेड़ा रोड स्थित वामदेव स्मृति शिविर में सुबह 7.30 बजे गणपति स्थापना एवं पूजन के साथ कार्यक्रम शुरू हुआ। अखाड़े के आचार्य पीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंदगिरि महाराज ने पट्टाभिषेक कर स्वामी को महामण्डलेश्वर पद्वी प्रदान की। इसके बाद महामंडलेश्वर स्वामी अनंतदेवगिरि ने अखाड़े को राशि भेंट कर समष्टि का आयोजन किया। उन्होंने कहा मैं अब विरक्त हूं। आजीवन अखाड़े की सेवा करता रहूंगा। जूना के मुख्य सरंक्षक हरिगिरि, श्रीमहंत प्रेमगिरि, श्रीमहंत सुंदरपुरी, श्रीमहंत परशुरामगिरि, थानापति रामेश्वरगिरि उपस्थित थे। श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़े से स्वामी हंसराज उदासी को महामंडलेश्वर की उपाधि दी गई। स्वामी हंसराज उदासी महाराज भीलवाड़े वाले सिंधी समाज के पहले महामंडलेश्वर बने हैं। बड़ा उदासीन अखाड़े में स्वामी हंसराज उदासी महाराज के पट्टाभिषेक कर महामंडलेश्वर की उपाधि दी।

13 अखाड़े के पदाधिकारी मौजूद थे
महामंडलेश्वर स्वामी भीलवाड़ा के हरिसेवा धाम आश्रम से हैं। उनके ओर से वेद विद्यालय, बीएड कॉलेज सहित होनहार विद्यार्थियों को कोटा में मुफ्त शिक्षा दिलाने सहित अन्य प्रकल्प संचालित करते हैं। कार्यक्रम में 13 अखाड़ों के प्रमुख पदाधिकारी मौजूद थे।
यह है महामंडलेश्वर का इतिहास
अखाड़ों में सम्मिलित होने वाले नागा संन्सासियों को संन्यास दीक्षा प्रदान करने का कार्य परमहंस कोटि विद्वान संन्यासी द्वारा किया जाता था। पूर्व में अखाड़ों में संस्कार दीक्षा का काम शंकराचार्य के हाथों में था। लेकिन 1776 में ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य पीठ से चले गए। इसके बाद करीब 165 वर्ष तक कोई भी शंकराचार्य नहीं रहे। इसे देख अखाड़ों ने मंडली में घूमने वाले विद्वान परमहंस संन्यासी द्वारा दीक्षा कार्य प्रारंभ किया। यही विद्वान नाना स्थानों पर भ्रमण कर धर्म का प्रचार प्रसार करते थे। इन्हें मण्डलेश्वरी कहा जाता था। कालंतर में मण्डलेश्वरी से मण्डलेश्वर शब्द का उच्चारण होने लगा और अखाड़ों के दीक्षा कार्य से जुड़े होने से उन्हें आचार्य महामण्डलेश्वर कहा जाने लगा। श्री पंच अग्नि अखाड़े के श्रीमहंत गोविंदानंद ब्रह्मचारी ने बताया कि इस प्रकार अखाड़ों में एक आचार्य महामण्डलेश्वर व कई महामण्डलेश्वरों का महामण्डलेश्वर के पद पर पट्टाभिषेक किया जाने लगा।
ऐसे बनते हैं महामंडलेश्वर
शैव संप्रदाय के सात अखाड़ों में महामण्डलेश्वर की पद्वी उसी संन्यासी को दी जाती है जो विद्वान हो। महामण्डलेश्वर बनने के लिए अखाड़ा के प्रमुख पदाधिकारी विशेष मुहूर्त तय करते है। इसके बाद उस दिन सुबह गणेश पूजन से कार्यक्रम की शुरुआत होती है। इसके बाद अखाड़े के पुरोहितगण वैदिक मंत्रोच्चार के साथ संन्यासी की शुद्धि करवाते है। शुद्धि पूजन के बाद अखाड़े के अचार्य महामण्डलेश्वर अपने हाथों से महामण्डलेश्वर का पट्टाभिषेक कर घोषणा करते है। यह प्रक्रिया 13 अखाड़ों के प्रमुख पदाधिकारी के संन्यासी को चादर पहनाकर अपनी सहमति देते है। इसके बाद महामण्डलेश्वर अपने आचार्य को गुरु दक्षिणा भेंट कर अखाड़े में सहयोग रूपी राशि भेंट करता है। कार्यक्रम में आए सभी अतिथिगणों के लिए उक्त महाण्डलेश्वर की ओर से समष्टि का आयोजन किया जाता है।
इसलिए बनाया जाता है
सनातन धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए लंबी तपस्या के बाद अखाड़ा संन्यासी को महामण्डलेश्वर की पद्वी देता है। इस पद्वी पर आने के बाद उक्त संन्यासी को अपने ज्ञान को देशभर में फैलाने की जिम्मेदारी दी जाती है। अखाड़े के संन्यासी चेले बनाने से लेकर देशविदेश में सनातन धर्म का प्रचार प्रसार करना ही उद्देश्य होता है।
आचार्य महामण्डलेश्वर सिर्फ देते है दीक्षा
शैव संप्रदाय के सात अखाड़ों में संन्यास दीक्षा देने के लिए आचार्य महामण्डलेश्वर बनाया जाता है। उज्जैन, हरिद्वार, इलाहाबाद और नासिक में होने वाले सिंहस्थ महापर्व के समय संन्यासियों को दीक्षा देते है। जिसमें कई नियमों का पालन कर संन्यासी खुद अपनी सात पीढ़ी का पिंड दान कर संन्यासी दीक्षा लेते है।

Source - patrika 

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